दास्तां

नूर भी कुछ ऐसा आया

जो मुझे न भाया ,

उस दिन मेघ भी बरसे,

और इस दास्तां को सुनने

को तरसे,

दास्तां कुछ ऐसी थी,

जो हकीकत में न होकर

बस सपना बनकर रह गई,

हर एक पल पे प्रश्न था,

जिसका कुछ वजूद न रहा,

पुरी  जिंदगी अब इन प्रश्नों

के उलन में निकल जाएगी,

अंजुम  सी थी  वो,

एक झलक  के लिए उस

हमदम का शफक में इंतजार किया,

पर वो तारा अब कही नजर नहीं आता,

सुकुन सा मिला इस दास्तां कों

एक छोटे से पल में सुनाकर,

बरसते मेघ ने मकबूल भी करा,

और जाते जाते कह गया 

लौट के आऊंगा,

एक और दास्तां सुनने॥ 




 

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